एक बदनसीब इंसान

एक दर्दनाक चीख….
अमीर के बंगले से टकराई,
मगर पिघला ना सकी
उसके दिल को
कांक्रीट की दीवारों ने,
रोक रखा था उसे।
बुझा हुआ इंसान
छटपटाते हुए,
गेट तक पहुँचा,
और तड़प-तड़प कर कहने लगा…
मेरा बेटा मर गया है,
कफ़न के लिए कुछ पैसे दे दो
दया करो,
रहम खाओ !
सुना तुमने?
मेरे बेटे का कसूर सिर्फ इतना था,
उसने तुम्हारी फैक्ट्री की बनी
नकली दवा खाई थी।
इक तो पैसे नहीं थे,
दवा के लिए
जैसे-तैसे पैसे बटोरे
और उसे दवा खिलाई,
अब मर गया है,
कफ़न के लिए पैसे कहाँ से लाऊँ?
कुछ तो इंसाफ़ किया होता
मुझ बदनसीब के साथ।
नकली दवा में
कुछ और भी मिलाया होता,
मरने के बाद उसकी लाश भी ना बचती
और वह गल गया होता।
कम से कम मुझ बदनसीब बाप को
तेरे दरवाजे पर
अपने बेटे की मौत के बदले
कफ़न ना मांगना पड़ता।

2 responses to “एक बदनसीब इंसान”

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